Published On: Tue, Jul 19th, 2016

गुरु पूर्णिमा आज, गुरु की महत्ता को ही समर्पित है यह पावन दिवस | Zee News Hindi

नई दिल्‍ली : गुरु की महत्ता को ही समर्पित दिन है गुरु पूर्णिमा। आज शुक्रवार यानी 31 जुलाई को आषाढ़ी पूर्णिमा है, जिसे गुरु पूर्णिमा भी कहते हैं। आज का पावन दिन अपने गुरुओं के दर्शन कर जीवन को आलोकित करने का अवसर भी माना जाता है। हर साल गुरु पूर्मिमा के अवसर पर लोग श्रद्धापूर्वक अपने गुरु का स्‍मरण करते हुए पूजा अर्चना में लीन रहते हैं। इसे सद्गुरु के पूजन का पर्व का भी कहा जाता है।

शास्‍त्रों में उल्‍लेख है कि संसार रूपी सागर को पार करने के लिए सद्गुरु की शरण में जाने की आवश्‍यकता पड़ती है। वैसे भी, भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि ब्रह्मा और शंकर जैसा व्यक्ति भी गुरु के बिना संसार से पार नहीं उतर सकता है। गुरु पूर्णिमा के अगले दिन से सूर्योदय के साथ सावन का महीना शुरू हो जाएगा। यह महीना बाबा भगवान शिव के लिए विशेष होता है। इस वर्ष मलमास लग जाने के कारण पहली बार किया जानेवाला कोई शुभ कार्य नहीं किया जा सकेगा।

गुरु से मिलने वाली दीक्षा की महिमा भी काफी अधिक है। गुरु के उपदेश का प्रभाव उनके प्रति असीम श्रद्धा व विश्वास रखने से हो पाता है। दीक्षा गुरु आध्यात्मिक गुरु होते हैं। गुरु वशिष्ठ से श्रीराम ने, गुरु संदीपनि से श्रीकृष्ण ने, गुरु अष्ठावक्र से राजश्री जनक ने व स्वामी रामकृष्ण परमहंस से स्वामी विवेकानंद ने दीक्षा ग्रहण की थी। यह तिथि व्यास पूर्णिमा भी कहलाती है। इस तिथि को माता सत्यवती व पिता पराशर से व्यास का जन्म द्वीप पर हुआ था। अत: इन्हें द्वैपायन भी कहा जाता है। बदरीकाश्रम के बदरी वन में तपस्या करने के कारण इन्हें बादरायन व वेद का विभाग करने के कारण इन्हें वेद व्यास कहा जाता है। इस तिथि को व्यास जी की जयंती मनाई जाती है। अत: शिक्षा गुरु अथवा दीक्षा गुरु के पूजन के साथ व्यास जी की भी पूजा की जाती है।

इस तरह गुरु पूर्णिमा का दिन जीवन को प्रकाश से आलोकित करने वाले गुरु के प्रति आभार की अभिव्यक्ति का दिन है। भारत भूमि पर जितने भी अवतार अवतरित हुए उनके गुरु भी हुए हैं। श्रीराम के गुरु वशिष्ठ थे तो श्रीकृष्ण के सांदीपनी। तात्पर्य यही है गुरु होना जरूरी है। गुरु के बिना जीवन का उद्धार नहीं है। गुरु बनाने का एक दार्शनिक तात्पर्य हमारे यहां यह भी बताया गया है कि हमें हर किसी से सीखने का प्रयास करना चाहिए। गुरु को भारतीय संस्कृति में ऐसे आश्रय के तौर पर देखा गया है जो विपरीत या कठिन परिस्थितियों में हमारा मार्गदर्शन करता है। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है, “गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई, जो बिरंचि संकर सम होई।”

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